मैंने अपनी ₹38000 की तनखाह वाली जॉब से रिजाइन कर दिया और अपनी रूचि के मुताबिक तय किया की अब लेखन (ब्लॉग्गिंग) के कार्य को किया जाए। वैसे तो मुझे लिखने का शौक तो बचपन से ही था पर अब जाकर उसके प्रति संवेदनशील हो पाया। मैंने ये बात जब अपने परिवार को बताई तो घर में हड़कंप मच गया।
माँ बोली तुझे लिखने काम करना है तो कर। कौन रोक रहा है तुझे? पर नौकरी क्यों छोड़ रहा है? कोई अगर पूछेगा की लड़का क्या कर रहा है तो क्या बताएंगे? चार लोग सुनेगे तो क्या कहेंगे की लड़का घर पर बैठा है! और बहु के मायके वाले, क्या जवाब देंगे उन्हें? पिता जी बोले ज़िन्दगी ऐसे उटपटांग निर्णय लेकर नहीं चलती। जिंदगी के प्रति संवेदनशील होना पड़ता है। तुम्हारे ऊपर अपने परिवार की जिम्मेदारी है। घर में बहु है, बच्चा है। नौकरी छोड़ कर कैसे करोगे इनकी देखभाल। खैर हम क्या बोलें, तुम्हे करना तो वही है जो तुमने सोच रखा है। किसी तरह घर वालों को समझा बुझा कर शांत किया।
रात के खाने के बाद जब अपने कमरे में पहुंचा तो देखा की बेटा सो रहा था और श्रीमती जी का मुँह फूला हुआ था। आपने एक बार भी मुझसे पूछने या बताने की जरूरत नहीं समझी? श्रीमती जी ने तंज़ भरी आवाज़ में पुछा? अरे तुम तो मुझे समझो और आखिर जॉब सैटिस्फैक्शन नाम की भी कोई चीज़ होती है या नहीं। कुछ देर बुदबुदाने के बाद श्रीमती जी भी सो गई। वैसे मेरे इस निर्णय से पूरे घर में कोई सही मायने में अगर खुश हुआ है तो वो है मेरा बेटा। आखिर उसको अपने साथ खेलने के लिए एक दोस्त जो मिल गया है।
दो दिन बाद ससुराल से सास ससुर आ पहुंचे। सास कटाक्ष भरे लहजे में बोली, सुना है आपने नौकरी छोड़ दी? अब क्या करने का इरादा है? मैंने सासु माँ को बताया की मैं अब ब्लॉग्गिंग करूँगा। इसपर वो बोलीं वो ठीक है पर काम क्या करोगे? इससे अच्छा है की आप बच्चों को घर पर ट्यूशन पढ़ने का काम कर लो। ससुर जी बोले की उनके मोहल्ले वाले शर्मा जी का लड़का अपना यूट्यूब का चैनल चलता है और अच्छा खासा कमा रहा है। मेरी मानो तो आप भी अपना यूट्यूब चैनल बना लो।
उनकी ये बातें सुनकर मैं निशब्द था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था की क्यों आज भी हमारे देश, हमारे समाज में लेखन (ब्लॉग्गिंग) जैसे कार्य को कोई सीरियसली नहीं लेता? क्यों आज भी लेखक होना एक गाली की तरह है। पर ऐसा शुरू से नहीं था। ये वो ही भारत भूमि है जहाँ रामधारी सिंह दिनकर, सूर्यकांत त्रिपाठी, मुंशी प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन और न जाने कितने अनगिनत लेखक और कवि हुए है। पर पिछले कुछ दशकों से भारतीय समाज पाश्चात्य संस्कृति की और विमुख हो गया है। हर इंसान की कीमत उसके सैलरी पैकेज से लगायी जाने लगी है। अगर ये यूँ ही ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन ऐसा आएगा जब भारत की साहित्यिक विरासत शून्य पर आ जाएगी।
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